पृष्ठ:बीजक.djvu/६४९

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साली । (६११) अर्ब खर्बल द्रब्यभई अथवा अर्बखर्बल विद्याको पढजाता भयो साखी शब्द चौपाई दोहा कंठ भये सब शास्त्र कंठभये औ उदय अस्तौं राज्यभयो बड़ों बादशाह भयो सबको अपने वश कैलियों अथवा महंत भयो पंडित भयों सबको उदय अस्तौं चेला करिलियो औ शास्त्रार्थ करिकै जीतिलियो औ मन न जीत्यो तौ कहा कि यो भाक्तके माहात्म्यको नहीं तुलॆहै ॥ २२३ ॥ मच्छ विकाने सब चले, ढीमरके दरबार ॥ रतनारी आँखियांतरी, तू क्यों पहिराजार ॥ २२४॥ मनमें लगिकै सब जीव मच्छमायाको अनुभव ब्रह्म है ताहीके हाथ जीव बिकाय गये औ मरके दरबार सब चले जायहैं अर्थात् काल मनरूपी जालमें सबको फेंदायलेइहै ताहीके दरबार सब चलेनायेंहैं अर्थात् मायाके मारिबेकों सब उपायकरै हैं कि माया को नाशकैकै ब्रह्मलैजायँ मनरूपी जाल में फन्दै मछरी जो मायाको अनुभव ब्रह्म ताही के साथ बिकाय गये अर्थात् वही में लीनभये ताहूपै कालते न बचे सो साहब कहै हैं कि तैते मेराहै तेरे ज्ञान नयन रतनार रहे हैं कहे मोमें तेरो अनुराग रह्यो है हैं काहे मनरूपी नालमें पारकै कालके दरबार चलो जायेहै जामें मेरो अनुरागैहै वे आपने ज्ञान नयन खोलु मेरी निर्गुण भक्ति छा गुणवारी है सो करु मेरे पास आईकै मन माया कालते बचि. जायगो ॥ २२४ ॥ पानी भीतर घरकिया, शय्या किया पतार ॥ पांसापराकरमको, तबमैं पहिरा जार ॥ २२८॥ जीवमुख । जीवक है हैं कि मैं बाणीरूप पानीमें घरोकियो है गुरुवालोग वाणीको उपदेश । करिके वही बाणीरूप पानीमें डारि दिये औ संसाररूपी जोपतारहै बन तामें शय्याकिया तब कर्मको पांसापरयो तामें मनरूपी जाल मैं पहिरो अर्थात् मनरूपजाल में फैदिगयो ।। २२५ ॥