पृष्ठ:बीजक.djvu/६६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(६२४) बीजक कबीरदास । 'सजन शुद्ध जीव हैं ते गुरुवालगन के बोल सुनिकै दुर्जन द्वैगये सो जों हिरण्यका मोल है सो जातरहा काँसा ताँबाकी तुल्य हैरहा है ॥ २६३ ॥ विरहिन साजी आरती, दर्शनदीजै राम ॥ मुयेते दरशनदेहुगे, अवै कोने काम ॥ २६४॥ कबीरजी के हैं कि जे श्रीरामचन्द्र बिरही जीव ते आरतीसाने खड़े हैं कि जो रामजी मिलें तो आरतीकरै संसार छॉड़ि एक तुम्हारे मिलिबेकी आशा किये हैं सा हेसाहब ! दर्शनदीनै मुयेते दर्शनतो देवही करोगे परन्तु औरे जीवन के काम न आवोगे काहेते वेतौ उपदेश करही न आवेंगे साहब बिरहीको मिलै है तामें प्रमाण चौरासी अङ्गकी साखी ॥ “बिरहिन जरती देखिकै, साई आयेधाय । प्रेमबुन्दते साँचिकै, हियमें लई लगाय': ।। २६४ ।। पलमें परलयबीतिया, लोगन लगी तमारि ॥ आगिल शोच निवारिकै, पाछे करो गोहारि ॥ २६॥ पलभरेमें प्रलयुतेरी होती जायहै आयुक्षीण होती जाय यही तमार लोगनके लगी है फिर वा घरी नहीं मिलै ताते आगिल शोच छाँड़िदेव जौन धन जोरि जोरि स्त्री लरिकनहेत धरयाहै पाछिल गोहारिकरौ साहब को जानो जाते जनन मरण छूटै ॥ २६५ ॥ एकसमाना सकलमें, सकलसमाना ताहि । कबिरसमाना बूझमें, तहाँ दूसरा नाहि ॥ २६६ ॥ . एक जो ब्रह्म सो सब जीवनमें समाय रह्यो है औ कबीरजी कहै हैं कि मैं बुझमें समान्यो है ब्रह्मके प्रकाशी औ सब जगत् के अन्तर्व्यमी ऐसे जे श्रीरामचन्द्र तिनको जब बुझ्यो तब वही बुझमें समायरह्यो है सर्वत्र साहबही को देखनलग्यो दूसरा न देखते भयो मुक्तद्वै सांचा दासभयो तामें प्रमाण कबीरजी को ॥ जीवन मुक्तै द्वैरहै, तनै खलककी आव। आगे पीछे हरिफिरें, क्यों दुखपावै दास ॥ २६६ ३३