पृष्ठ:बीजक.djvu/६६५

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साखी। ( ६२७) ज्यहि खाजत कल्पनभया, घटहीमें सो पूर॥ बाढ़गर्वगुमानते, ताते परिगो दूर ॥ २७३॥ जौने मुक्तिको खोजत खोजत कल्पैभयो अर्थात् कल्पनाकरत करत कल्पना रूप द्वैगया ब्रह्ममें लीनभया मुक्ति को मूल जो रामनाम सो तेरे घटही में है। ताके अहंब्रह्मा स्मके गब्बते तेको दूरि पारगयो अबहू समुझ तौ तेरे समीपही हैं ॥ २७३ ॥ दश द्वारेका पीपरा, तामें पक्षी पौन ॥ हिबेको आश्चर्य है, जायतो अचरज कौन ॥२७४॥ रामहि सुमिरहिं रणभिरें, फिरें औरकी गैल ॥ - मानुषकेरीखालरी, ओढिफिरत बैल ॥ २७५॥ २६७ । रामनामक तीसुमिरै है परन्तु रामनामजापबे की बिधिगुरुते नहीं पाये बादबिवाद करत साधुनते भिरतफिरै हैं साहबको नहीं जानै हैं ते मानुषकी खाल ओढ़ते हैं परंतु बैलहैं अर्थात् पशु हैं जानै नहीं हैं ॥ २७५ ॥ खेत भला बीजौ भला, बोइये मूठीफेर ॥ काहे बिरवारूखरा, या गुणखेतै केर ॥ २७६ ॥ खेतीं तो नौ कई है परंतु तृणादिकनके जरको कारण वामें बनी है त्यहिते बिरवा उठे नहीं पावै तृणछाय जायहै सो या गुण खेतै को है ऐसे खेत अंतः करणमें नाना बासनारूप तृण जानिरहे हैं तामें रामनामरूपी बीन फेरि फेरि बावै हैं परंतु तृण बासननके मारे लगै नहीं पावें साहबमें प्रीति नहीं होय देइ जब सत्संग कार कै निराय डारे तौ तृणऔ रामनामरूप अंकुर दृढ़ हैजाय साहब को जाननलगै संसार छुटिजाय पापजारेमें नामकी बड़ी शक्ति है तामें प्रमाण ॥ “यावती नान्मिवै शक्तिःपापनिर्दहनेहरेः ॥ तावत्कर्तुनशक्नोति पातकम्पातकीजनः ॥ २७६ ॥ गुरु सीढ़ीते उतरे, शब्द विमूखा होइ ॥ ताको काल घसीटिहै, राखिसकै नहिं कोइ ॥ २७७॥