पृष्ठ:बीजक.djvu/६९०

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(६५४) बीजक कबीरदास । कबीर जी कहै हैं कि नेइ जब बिगरि जायेहै तब सगरौ घर बिगरि जाय। ऐसे नेइ जो है धोखाब्रह्म जौनेको गुरुवालोग समुझावै है सोई जब मिथ्या ठहरयों तब और सब लोकके देवता येई घरहैं ते बिगरिबोई चाहैं अर्थात् इनते अब कैन सांचफल मिलै सो श्री कवीर जी कहै हैं जो कोई साहब को समुझै अर्थात् तन मन ते लागै ताका काल नहीं खाय है और सब कालको कलेवा हैं ॥ ३६१ ॥ रामरहे बनभीतरे, गुरुकी पूजि न आश ॥ कहकबीर पाखंडसब, झूठे सदा निराश ॥३६२॥ बन जो है संसार तौनेके भीतर जब जीव भयो रामरहे कहे वह जीव रामते राहत भयो रामको पुनि बरिआई पावै है अथवा रामते रहित जब जीव भयो तब संसारी ६ जायेहै और परमगुरु जे सुरति कमलमें बैठे रामनाम बतावै हैं तिनकी आश न पूजतभई वे रामनाम बतावै हैं यह नहीं सुनै हैं वे छुड़ावन चहै हैं। सो नहीं छूटे हैं औ जे साहबका छोड़ि और औरमें लगावै हैं ते सब पाखण्डी हैं। झूठे हैं औ पाखण्डी जे हैं और औरमें लागै हैं तिनकी मुक्ति कबहूँ नहीं होइहै। वे सदा निराशरहैं तामें प्रमाण चौरासी अङ्गकी साखी॥“चकई बिछुरी रैनि की जाय मिली परभात ॥ जे जन बिछरे रामते दिवस मिलैं नहिं रात॥३६२॥ | बिनारूप विनरेखको, जगत नचावै सोइ ॥ मारै पांचौजोनहीं, ताहिरै सबकोइ ॥ ३६३॥ जोमन जगत् को नचावै है सो बिनारूपको है औ बिनारेखको है आकाश वायु आदिक जेहैं तिनमें रूपनहीं है पै रेख देखी पैरै है औ बायुको स्पर्श होय है। सोई रेखहै औ मनके रेखऊ नहीं है सो जे पांचौ पांचो ज्ञानेद्रिय कर्मेन्द्रियकों नहीं मरे हैं ऐसे गुरुवन को सबजने डेराते जाउ नहीं तौ तुमहूं को संसार में डारि देईंगे ॥ ३६३ ॥ डरउपजा जिय है डरा, डरते परा न चैन ॥ देखा रामहि हैनहीं, यही कहै दिनरैन ॥ ३६४ ॥