पृष्ठ:बीजक.djvu/६९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

बघेलवंशवर्णन । (६६१) ज्ञान उपदेश ताके कीन्ह्यो श्रीकबीर तहां कह्यो सो न इति भीति विस्तर बुझायकै ॥ मानिकै यथारथ कृतारथ है धर्मदास चलि मथुरा ते पथ गौन्यो चिते चायकै ॥१॥ दोहा-धर्मदास आवत भये, बांधौगढ़ सहुलास ॥ गुरु विश्वास दृढ़ वास किय, जासु हिये आवास॥१३॥ पुनि कछु दिन बीते सुख छाये । श्रीकबीर बांधव गढ़ आये ॥ तह चौहट बजार मधिमाहीं । निरखि एक सेमर तर काहीं ॥ तहाँ आठ दिन आसन कीन्ह्यो । सेमर तरु उड़ाय पुनि दीन्ह्यो । निरखि लोग सब अचरज माने । भूपति स सब जाय बखाने । महाराज साधू यक आई । सेमरतरुको दियो उड़ाई ॥ गुणि अचरज भूपति अतुराई । प्रभु पद किय दंडवत सिधाई ॥ सादर नृप कर जोरि सुहाये । पूंछयो नाथ कहासे आये ॥ तब प्रभु बचन कह्यो अभिरामा । हम कबीर निवसे यहि ठामा । दोहा-तब राजा पूंछत भयो, कैसे जानें नाथ ॥ देहु परीक्षा हमाहिं जो,तै लखि होयँ सनाथ॥१४॥ होत अज्ञान नाश जेहिं तेरे । कहिय नाथ सो ज्ञान निवेरे ॥ देवी आदि वेदकी जोई । आदि निरंकारहु जो होई ॥ सादर पूंछत भयो। भुआला । दियो बताय कबीरकृपाला ॥ राजाराम कह्यो पुनि बैना । कहिय जो आदि बधेल सचैना ॥ तब तुमको कबीर हम जानें । अपनो जन्म सफल करि मानें ॥ सुनि कबीर तब मृदु मुसक्याई । उत्पत्ति जौन बधेल सोहाई ॥ लागे कहन भूपसों से सब । हम साकेत रहे निवसे जब ॥ तब मोसे कह श्रीरघुराई । तुम कबीर संसारहि जाई ॥ दौहा-जीवनको उपदेश करि, मेरो ज्ञान अशोक ॥ हमरे लोकपठावहू, जो प्रद आनँद थोक ॥ १५ ॥ छेद-द्वापर अंत आदि कलियुग में कृष्ण प्रकाश अनूपा ॥ पूरुब दिशि सागरके तटमें धरिहै बौध स्वरूपा ॥.