पृष्ठ:बीजक.djvu/६९६

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(६६२) बघेलवंशवर्णन । तहां जाय तुम प्रकट होउ यह रघुवर आयसु पाई ॥ प्रगटि वोडैसा जगपतिकेरो दरशन लीन्ह्यों जाई॥१॥ सागर तीर गाड़ि कुबरी पुनि बाँधि तासु मर्यादा ॥ पुनि परबोधि सिंधुको बहु विधि गभन्यों युत अह्लादा॥ चलत चलत गुजरात आयकै नगर विलोक्यो जाई ॥ जहां सुलक भूप बहु साधुन राखे रहो टिकाई ॥ २ ॥ भक्तिवान अति रही रानि अति नित सब साधुन केरो । दर्शन करिलै तिन चरणामृत निज घर करै बसेरो ॥ ते साधुनको दर्शन करिकै एक वृक्षतर जाई ॥ वसि आसन बिछायकै बैठ्यो हरिको ध्यान लगाई॥३॥ यक दिन रानी सब साधुनको भोजन हित बोलवाई ॥ पंगति दिय बैठाय गयो मैं नहिं तवां हरषाई ॥ रानी तब मेरे आश्रममें आवतभै अतुराई ॥ महि तजि अंतरिक्ष आसन मम निरखि परम सुख पाई४ विनती किय प्रभु आपहु चलिकै मम घर भोजन कीजै ॥ मैं तब कह नहिं भूख प्यास मोहि हरि अधार गुलि लीजै। रानी कह यकतो सुत विन मैं दुखित राज्य सब सूनी ॥ दूजे जो न आप पशुधारे तपी ताप तो दूनी ॥ ६ ॥ मैं कह सोच करै नहिं राजा द्वै भुत है तेरे ॥ संतनको चरणामृत अबहीं लेआवे ढिग मेरे ॥ साधुन चरण धोय चरणोदक लैआई जब रानी ॥ दियो पियाय रानिकी तब मैं निज चरणोदक सानी॥६॥ लहि मेरो वर साधुनकेरो बहु विधि करि सतकारा ।। परम प्रमोद पायउर रानी गमनत भई अगारा ॥ कह्यौ हवाल भूपसों सो सब सुनि नृप अति सुखपाई। ले फल फूल द्रव्य बहु सादर मम समीप द्रुत आई॥७॥