पृष्ठ:बीजक.djvu/७३१

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पुनि विजयराघव घेरि लीन्हो संग सैन्य महानहैं॥ तेउ भये वांयां करतभै करी थान तहँऊ करि लियो । महराज श्रीरघुराज सुख भरि सपि अंगरेजहिदियो॥ यह कृपा शुणिं यदुराजकी रघुराज परम उदारहै ॥ निज राजधानी आय कछ दिन बस्योछुखितपार॥ दोहा-रींवा ते जे कढ़ि गये, बहु सरदार सुखारि ॥ वागा भे रण रार कर, तिन मिसि नृपहुँ विचार ॥७७॥ कोपित है जरनैल बहु, लै सँग सैन्य अपार ॥ चढ़ि आयो बानगर, गोरा कइक हजार ॥७८॥ हुकुम दियो महराजको, करि दुष्टता विचार ॥ देखन हेतु कवाइदै, आर्दै आजु हमार ॥७९॥ सुनत कह्यो रघुराज उदारा । देखन चलिहैं कछु न बँभारा ॥ हमरे सति सहाय यदुराई । का करिहैं अरि सैन्य महाई ॥ तब रीवांके लोग सुजाना । रह्यो जो और देवान पुराना ॥ वरज्यो विनती कर बहु भांती । उचित न जाब प्रबल आरती ॥ तहँ यक दीनबंधु जेहिं नामा । रह्या दिवान वीर मतिधामा ॥ कहत भयो सो प्रण करि भारी ।। चलिये आप न कछू विचारी ॥ क्षेत्री है जो समर सकानो । कुलकलंक तेहिं पावर जानो ॥ यह रिपु करिहै कहा हमारो । करिहै रोष जायगो मारो । दोहा-दीनबंधु दीवानके, वचन सुनत नरनाथ ॥ जात भयो रणसाज सजि, लिये सैन्य बहु साथ॥१८०॥ भूप संग बहु सैन्य करेरी । सो जरनैल नयन निज हेरी ॥ भय अति मानि देखाय कवाइत । गमन्या हारि मानिकै निजचित ॥ महाराज रघुराज सचैनै । कृपा कृष्ण गुणि आयो ऐनै ॥ सुधि करि दीनबंधुकी वानी । है प्रसन्न बहु विधि सनमानी ।। दीन्ह्यो गाँव अनेक इनामी । गुणि भतिवान् दिवान ललामा ।।