पृष्ठ:बीजक.djvu/७४४

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(७१६) बघेलवंशवणन । राना विदित उदयपुर केरे । तिन भाई करि लेहं निवेरे ॥ सुनत उदयपुर खत लिखवायो । रानाजी लिखि तरत पठायो । ईजानगर भूप जो रहई । सो हमरो भाई सति अहई ॥ सुनि खत बांधकेश महराजा । कह वकील सों वयन दराजा ॥ दोहा-लै आवहु द्रुत तिलक इत, लै आये ते जाय ॥ टिके रहे बहु मासलों, तिलक न चढ़त जनाय॥ ४३॥ रामराजसिंहको तिलक, चढ़नको कदै वकील ॥ भूय क नाही बनत उन, कहैं ज्योतिषी ढील ॥ ४४ ॥ कतहुँ न तुव संबध तर्हि, तुव संबंधी माहिं ॥ याते इत सब जन कहैं, व्याह योग उत नाहि ॥४६॥ अति मतिवंत भूप रघुराजू । गुन्यो वृथा सब करत अकाजू ॥ पांचलाख मुद्रा यह देई । तिलक माहिं अति आनँद भेई ॥ उभय लाख बारे महँ दे हैं । उभय लाख सँग सुता पैठे हैं । हय गय भूषण वसन अमोला । और उपरते देइ अतोला ॥ दोषहु या कछु न जनाई। रानाको प्रसिद्धहै भाई ॥ यह करि ठीक मनहिं मतिवाना । कलकत्ता जब कियो पयाना ॥ तहँ किय लाट अग्रते ठीको । रामराजसिंह परिनय नीको ॥ दाइज लेन रही जो चाहा । ताहूको करि दियो निवाहा ॥ दोहा-रीवामें द्रुत आय प्रभु, कह पितृव्य सुत पाहि ॥ | साहब ढिग सिद्धांत भो, तिहरो व्याह तहाँहि ॥४६॥ कहत रहे जे होवे नाहीं । तेउ चुपभये न कछु बतराहीं ॥ नृपं वकील ते कहि घर शाहू । पांच लाख धरवाय उछाहू ॥ रामराजसिंहको लै संगै । साजि बरात चल्यों सउमंगै ॥ काशीको जब गये निराई । डेरा दिय सो ले अगुवाई ॥ तहँईसो पुनि तिलक चढायो । हय गय भूषण वसन मँगायो । मुद्रा सहस पचास मँगाई । गजपति सिंह दियो सुख छाई ॥