पृष्ठ:बीजक.djvu/७८

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               अथ बीजक प्रारम्भः।
           अथ रमैनीप्रथम ॥ १ ॥ २ ॥ चौ•जीवरूपयकअन्तरवासाअन्तरज्योतिकीनपरगासा १

इच्छारूपनारि अवतरी । तासु नाम गायत्री धरी २

तेहिनारीकेपुत्रतिनभयऊ। ब्रह्माविष्णुमहेशनामधरेङ ३
तवब्रह्मापूंछतमहतारी। कोतोरपुरुषकाकरितुमनारी ४ तुमहमहमतुमऔरनकोई। तुममोरपुरुषहमैंतोरिजोई ५  

साखी-बाप पूतकी एकै नारी औ एकै माय विआय ॥ | ऐसापूत सपूत न देख्यो जोबापै चीन्है धाय ॥ १॥ चौ० जीवरूपयकअंतरवासा । अंतरज्योतिकीनपरगासा १ |

श्रीरघुनाथजीके लोकको जो है प्रकाश तेहिकै अन्तर ने हैं जीव एक रूपत कहे समष्टिरूप ते बास किये रहे, यहां यह भाव प्रगट है कि, जीवनकी सुरति औरई हैं और वह ( जीव ) औरई है सो–अंतरज्योति कहे साहबक लोकको जोहै प्रकाश तेहिकै अंतरकहे भीतरै आपनई प्रकाश करतभये अर्थात् सुरतिकी चैतन्यता पाय मनादिक उत्पन्नकै संसार प्रकटकै संसारी द्वैगये । साहबको न जानत भये या बात मंगळमें विस्तारते कहिआयेहैं याते इहां प्रसङ्गमात्र सूचित किया है । जब प्रलयहोयहै तबहूं वही ब्रह्ममें लीन होइ है उहँते पुनि उत्पत्ति होइहै औ अनुभव धोखा ब्रह्ममें ज्ञान करिके ने मुक्त