पृष्ठ:बीजक.djvu/९९

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| (४८) बीजक कबीरदास । बाण मेघनाद का शिरकाटि लेइ सो मेघनादको शिरकाटि लियो: औ भागवत हृमें हैं ॥ ( ध्येयंसदापारभवघ्नमभीष्टदोहं तीथास्पदंशिवविरंचिनुतशरण्यम् ॥ भृत्यार्तिहंप्रणतपालभवब्धिपोतंवंदेमहापुरुषतेचरणारविंदम् १ ) अर्थ हे महापुरुष तिहारेचरणारबिंदकीहम बंदना करेहैं कैसे तिहारे चरणारबिंदहैं कि सब कालमें ध्यानकरिबेके योग्य हैं औ परिभव जो तिरस्कार ताकेनाश करनेवाले हैं अर्थात् जो कोई ध्यानकैरै है ताको तिरस्कार लोकमें कोई नहीं कैरैहै । औ मनोवांछित पूर्ण करनेवाले तीर्थ जे हैं तिनके आश्रय भूत औ शिव विरंचि ते स्तुतिकरेगये शरण्यमकहे रक्षाकरनेमें समर्थ औ दासनके पीडा हरणवाले दीननके पालनवाले औ संसार समुद्रके नौकारूप । तामें प्रमाण कबीरजीको ॥ ( साहब कहियेएक को, दूजा कहा न जाय । दूजासाहब जे कहै, बादबिर्तडै आय ) ॥ ६ ॥ इतिछठवीं रमैनी समाप्तम् । अथ सातवीरमैनी । ( जीवमुख) जहियाहोतपवनहिंपानी । तहियासृष्टिकौनउतपानी ॥१॥ तहिया होत कली नहिं फूलातहिया होत गर्भ नहिंमृला २ तहिया होत न बिद्या वेदा । ताहया होत शब्द नाहिं खेदा ३ तहिया होत पिंड नाहिं बासूनाधर धरणि न गगन अकाशू४ ताहिया होत गुरू नहिं चेला ।गम्य अगम्य नपंथ दुहेला ६ साखी ॥ अविगति की गति क्याकहौं, जाकेगाँउ न ठाँउ॥ गुण बिहीना पेखना, का कहि लीजै नाँउ ॥६॥