पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

FARRAHATTARAKHARAARAKHARAPATRA ____ * वीजक मूल * ११७. सुपंथ विचारी ॥ घरहु के नाह जो अपना । तिनहुँ। से भेट न सपना ॥ ब्राह्मण क्षत्री वानी । तिनहुँ । कहल नहिं मानी ॥ योगी जगमें जेते । आपु गहे । हैं तेते ॥ कहहिं कबीर एक योगी । वो तो भर्मि । भमि भौ भोगी॥ १०२॥ शब्द ॥ १०३॥ ___ लोगा तुमहिं मति के भोरा । 1 ज्यों पानी पानी मिलि गयऊ । त्यों धूरि । मिला कबीरा ॥ जो मैथिलको साँची व्यास तोहर मरण होय मगहर पास ।। मगहर मरे मरन नहिं पावे । अंतै मरै तो राम लजावे ॥ मगहर मरे सो गदहा होय ॥ भल परतीत राम सो खोय ॥ क्या काशी क्या मगहर ऊसर । जोपै हृदय राम बसे । मोर ॥ जो काशी तन तजे कवीरा । ता रामहि । कौंन निहोरा ॥ १०३ ॥ __ शब्द ॥ १०४॥ कैसे तरो नाथ कैसे तारो । अब बहु काटल