पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१२०

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AAAAAAAAAAAARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRA MYTHI

  • वीजक मूल * १२१

पल एक संच न कीन्हा ॥ तीन लोक के कर्ता कहिये । वालि धो वरिपाई । एक समय ऐसी पनि आई । उनहूँ औसर पाई ।। नारद मुनिको । वदन छिपायो । कीन्हो कपिको स्वरूपा ॥ शिशु- पाल की भुजा उपारी । श्राप भयो हरि ठूला ॥ “पार्वती को वाँझ न कहिये । ईश्वर न कहिये । भिखारी ॥ कहहिं कवीर कर्ता की बातें । कर्म की वात नियारी ॥ ११०॥ शब्द ॥ १११ ॥ में है कोई गुरु ज्ञानी । जगत उलटि वेद वूम। पानी में पावक वरे । अंधहिं आँखि न सूझै ।। गाई तो नाहर खायो । हरिन खायो चीता । काग लंगर फाँदिके । बटेर वाज जीता ॥ मूस तो मंजार खायो । स्यार खायो श्वाना ॥ श्रादि कोउ देश जाने । तासु बेस वाना ॥ एकहिं दादुर खायो । पाँचहिं भुवंगा ।। कहहिं कबीर पुकारिक । हैं दोऊ यक संगा ॥ १११ ॥ NAHMEANIY eta