पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१२४

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वीजक मूल १२५ गुरुके वचनहिं मान । दूसर शब्द करो नहिं कान॥ तहाँ विहंगम कबहुँ न जाई.। औगह गहिके गगन । रहाई ॥ ३ ॥ घघा घट विनसे घट होई । घटही में / घट राखु समाई ॥ जो घट घटे घटहिं फिरि श्रावे । घटही में फिर घटहि समावे ॥ ४ ॥ डडा निरखत, निशदिन जाई । निरखत नेन रहे रतनाई ॥ निमिप एक जो निरखे पावै । ताहि निमिप में नैन । छिपावे ॥ ५ ॥ चचा चित्र रचो वड़ भारी । चित्र है छोड़ि तें चेतु चित्रकारी ।। जिन्ह यह चित्र विचित्र है खेला । चित्र छोड़ि तें चेतु चितेला ॥६॥ छछा है आहि छत्रपति पासा । छकि किन रहहु. मेटि सब श्रासा ॥ मैं तोही छिन छिन समुझावा । खसम ! छाडि कस पापु बँधावा ॥७॥ जजाई तन । | जियत न जारो । जौवन जारि युक्ति तन पारो ॥ जो कछु युक्ति जानि तन जरे । ई घट ज्योति ! उजियारी करे ॥ ८ ॥ झमा अरुझि सरुझि कित जान । अरुझनि हीडत जाय परान ॥ कोटि सुमेर RAKACAAKANKRANBIRMALAALORAMRAA