पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1१४ बीजक मूल * . . सहज विचारे मूल गमाई लाभते हानि होयरे भाई ।। श्रोची मति चन्द्रमा गौ अर्थई । त्रिकुटी संगम स्वामी ! वसई । तबही विष्णु कहा समुझाई । मैथुन अष्ट! तुम जीतहु जाई ।। तब सनकादिक तत्व बिचारा. ज्यों धन पावहिं रंक अपारा ॥ भो मर्याद बहुत है। सुख लागा । यहि लेख सब संशय भागा ॥ देखत। २ उत्पति लागु न बारा । एक मरै एक करै विचारा ।। मुये गये की काहु न कही । झूठी ग्रास लागि जग रही॥ साखी-जरत जरतते पांचह, काहु न कीन्ह गोहार । विपविषया के खायहू, राति दिवस मिलि झार ॥१३॥ रमैनी ॥ १४ ॥ बड़ सो पापी आहि गुमानी । पाखंडरूप छलेउ नरजानी ॥ वावन रूप छलेउ बलि. राजा । ब्राह्मण कीन्ह कौन को काजा है ब्राह्मणही 'सब कीन्ही चोरी । ब्राह्मणही 'को जगल खोरी ॥ ब्राह्मण कीन्ही वेद पुराना । Further