पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१३०

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१३१ वीजक मूल पाप पुण्यके हाथहि पासा । मारि जगतका कीन्ह । बिनासा ॥ ई बहनी कुल वहनि कहावें । ई ग्रह है जारे उग्रह मारे ॥ बैठे ते घर साह कहावें । भीतर है भेद मनमुपहि लगावे। ऐसी विधि सुर विषभनीजे। नाम लेत पीचासन दीजे ॥ चूड़ि गये नहिं आपु सँभारा । ऊँच नीच कहु काहिं जो हारा ॥ ऊँच ! नीच है मध्य की वानी । एकै पवन एकहै पानी ॥ एकै मटिया एक कुम्हारा । एक सबनका सिरजन हारा ॥ एक चाक सब चित्र बनाई । नाद विंदके मध्य समाई ॥ व्यापक एक सकलकी ज्योती ।। नाम धरेका कुहिये भौती ॥ राक्षस करनी देव कहावें । वादकरें गोपाल न भावें ।। हंस देह तजि ई न्यारा होई । ताकर जाति कहै धौ, कोई ॥ स्याह है सफेद कि राता पियरा । अवरण वरण कि ताता . सियरा ।। हिंदू तुरुक कि बूढ़ो बारा । नारि पुरुप । का करहु विचारा॥ कहिए काहि कहा नहिं माना। दास कबीर सोई पै जाना।