पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१३४

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MAHARHamruknakArAdhikRENARAY

  • वीजक मूल * १३५

नित बकुला । तिकुला ताकि न लीन्हा हो। गाइन मांहिं वसेउ नहिं कबहुँ । कैसे के पद पहि- चनवउ हो ॥ पंथी पंथ बूझ नहिं लीन्हा ।। मूढहि । मूढ गँवारा हो॥ घाट छोड़ि कस औघट रेंगहु। कैसे। के लगवेहु तीरा हो ॥ जतइत के धन हेरिन लल- चिन कोदइत के मनदौरा हो ॥ दुइ चकरी जनि ! दरर पसारहु । तब पैहो ठीक ठौरा हो ॥ प्रेम वाण एक सत गुरु दीन्हो । गादों तीर कमाना हो । दास कबीर कीन्ह यह कहरा । महरा मांहि । ३ समाना हो ॥ २॥ कहरा ॥ ३॥ राम नाम को सेवहु वीरा । दूरि नाहिं दुरि। आसा हो । और देव का सबहु वोरे। ई सब झूठी । श्रासा हो ।। ऊपर उजर कहा भी वोरे। भीतर अ- जहूँ कारो हो । तनके वृद्ध कहा भौ वौरे । मनुवा अजहूँ बारो हो। मुखके दांत गये कहां बारे। भीतर दांत लोहेके हो । फिर २ चना चवाव विषय के Irrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrry