पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१४१

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११४० * वीजक मूल * शशि घट जल माँई हो ॥ एक समान कोई समुः। मत नाहीं । जाते जरा मरण भ्रम जाई हो ॥ रैन । दिवस ये तहवाँ नाहीं । नारी पुरुष समताई हो ॥ हों में बालक बूढो नाहीं । ना मोरे चिलकाई हो । त्रिविधि रहों सभनि मा वरतों। नाम मोर मुराई हो । पठये न जाउँ अाने नहिं श्रावों । सहज रहों बुनि- याई हो ॥ जोलहा तान वान नहीं जाने । फाटि विने दस लाई हो। गुरुपरताप जिन्हें जस भाख्यो।। जन विरले सो पाई हो ॥ अनंत कोटि मन हीरा वेधो । फिटकी मोल न पाई हो। सुर नर मुनिजाके ! खोज परे हैं । किछु किछु कबीरन पाई हो ॥१०॥ कहरा ॥ ११ ॥ 1 ननदी गे तें विपम सोहागिनि । ते नींद ले। संसारा गे ।। श्रावत देखि में एक सँग सूती । में! श्री खसम हमारा गे || मोरे बाप के दुइ मेहरस्वा ।। में अरु, मोर जेगनी गे । जब हम रहलि रसिक ! के जगमें। तबहि वात जग जानी गे ।। माइ मोर । FTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTr A