पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१४३

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३.१४४ वीजक मूल * खात । केस गये मोरे गंगा नहात ।। नैन गये मोरे कजरा देत । वैस गये पर पुरुष लेत॥जान पुरुषवा' मोर प्रहार | अनजाने का करों सिंगार || कहहिं कबीर बुढ़िया आनंद गाय! पूत भतारहिं बैठी खाया। वसंत ॥ ५॥ तुम बुझ २ पंडित कौनि नारि । काहु न व्याहलि है कुमारि ।। सब देवन मिलि हरिहि दीन्हा। चारिउ युग हरि संग लीन्ह । प्रथम पदुमिनि रूप आहि । है साँपिनि जग खेदि खाय ।। ई वर जोक्त ऊबर नाहिं । अति रे तेज त्रिय रैनि ताहि ।। कहहिं । कवीर ये जग पियारि।अपने बलकवहि रहल मारिस बसंत ॥६॥ माई मोरे मनुसा अति सुजान । घंच कुटि। कुटि करत विहान ॥ बड़े भोर उठि प्रांगन बाद ।। बड़े खांचले गोवर काटु ॥ वासी भात मनुसे लिहल। साग । बड़ा घेल लिये पानी को जाय ।। अपने सैयां की मै बांधूंगी पाट | ले वेचूंगी हाये हाट