पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१४४

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TAMRATRIKETimirARIS A ARRER १० वीजक मूल * १४५ कहहिं कवीर ये हरि के काज । जोइ याके ढिग रहि कौनि लाज ॥ वसंत ॥७॥ घरहि में बाबू वाढलि रार । उठि उठि लागलि चपल नारि ॥ एक बड़ी जाके पाँच हाथ । पाँचों के पचीस साथ ।। पचीस बतावें और और । और है वतावे कईक ठोर ॥ अंतर मध्ये अंत लेइ । झकझोरि झोरा जिवहि देइ ॥ आपन आपन चाहें भोग ।। कहु कैसे कुशल परि है जोग । विवेक विचार न । करे कोय । सब खलक तमासा देखे लोय ॥ मुख फारि हँसे राव रंक । ताते धरे न पावे एको अंक ॥ नियर न खोजै बतावे दूरि । चहुँदिश बागुलि रहलि पूरि ॥ लच्छ अहेरी एक जीव । ताते पुकारै पीव पीव ॥ अबकी बार जो होय चुकाव । कहहिं कबीर । ताकी पूरि दाव ॥ ७॥ वसंत ॥८॥ __कर पल्लव के बल खेले नारि । पंडित होय