पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१५

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१२ वीजक मूल सावी अमृत वस्तु जान नहीं, मगन भया सब लोय। । कहहिं क्वीर नामों नहीं जीयहि मरण न होय ॥१०॥ रमैनी ॥११॥ अांधरि गुष्टि सृष्टि भइ वोरी । तीन लोक में ! लागि ठगोरी । ब्रह्मा ठगो नाग कहँ जाई । देवता सहित ठगो त्रिपुराई । राज ठगोरी विष्णु पर परी ।। चौदह भुवन केर चोधरी ॥ श्रादि अन्त जाकी । जलक न जानी । ताकी डर तुम काहेक मानी॥ 1वै उतंग तुम जाति पतंगा । यम घर कियेउ जीव को संगा ॥ नीम कीट जस नीम पियारा । विषकोई अमृत कहत गॅवारा ॥ विपके संग कोन गुण होई ।। किंचित लाभ मूल गौ खोई ॥ विप अमृत गौ एकै। सानी । जिन जानी तिन विपके मानी ॥ काह! भये नर शुद्ध विशुद्धा । बिन परचय जगवूड़ न । बुद्धा ॥ मतिके हीन कौन गुण कहई । लालच लागी श्रासा रहई ॥ साखी भूवा ६ मरि जाहुगे, मुये पि वानी ढोल । सपन सनेही जा भया, सहिदानी रहिंगो वाल ॥११॥ HMMMMAHA