पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१९

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1 १८ बीजक मूल शून्य तहाँ चलि जाई ॥ शून्यहि व शून्यहि गयऊ । हाथ छोड़ि वेहाथा भयऊ । संशय सावज सकल सँसारा । काल अहेरी सांझ सकारा॥ साखी-सुमिरण करह रामका काल गहें है फेग ।। ना जानो कब मारि हैं । क्या घर क्या परदेश ॥१९॥ रमनी ॥ २०॥ अब कहु रामनाम अविनाशी । हरि छोडि जियरा कतहुँ न जासी ।। जहाँ जाहु तहां होहु । पतंगा । अब जनि जरहु समुझि विष सङ्गा ।।। रामनाम लौलायसु लीन्हा । मुंगी कीट समुझि मन ! दीन्हा ॥ भी अस गरुवा दुखके भारी । करु जिय जतन जो देख विचारी ॥ मनकी बात है लहरि । विकारा । तेनहिं सूझे वार न पारा ॥ साखी-इच्छा करि भवसागर, [जाम] कोहित रामधार ॥. ___कहैं कवीर हरि सरण गहु, गौ सुर बन्छ विस्तार ॥२०॥ रमैनी ।। २१ ॥ बहुत दुःख दुख दुखकी खानी।, तर चिहो। जब रामहिं जानी।। रामहि जानि युक्ति जो चलई । जन