पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/२७

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२६ MukArAHARKxnxxreakin वीजक मूल रमैनी ॥ ३४॥ पढ़ि पढ़ि पंडित करु चतुराई । निज मुक्ति मोहि कहो समुझाई ।। कहँ बसे पुरुष कौनसा गाऊँ । पंड़ित मोहि सुनावहु नाऊँ ॥ चारि वेद ब्रह्मे निज गना । मुक्तिका मर्म उनहु नहिं जाना ॥ दान पुण्य उन बहुत बरखाना । अपने मरणकी खबरि न जाना । एक नाम है अगम गंभीरा । तहवाँ । अस्थिर दास कबीरा ॥ ३ साखी-चिउँटी जहाँ न चढ़ि सके । राई ना ठहराय ॥ यावा गमन की गम नहीं । तहाँ सफलो जग जाय॥३४॥ रमैनी ॥ ३५॥ पण्डित भूले पढ़ि गुनि वेदा । आप अपन पौ। जानु न भेदा ॥ संझा तर्पण और पट कर्मा । ई। बहु रूप करें अस धर्मा | गायत्री युग चारि पढ़ाई । पूछहु जाय मुक्ति किन पाई ॥ और के छिये लेत। हो छींचा । तुमसो कहहु कौन है नीचा ॥ ई गुण गर्भ करो अधिकाई । अधिके गर्भ न होय भूलाई ।।