पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/३६

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  • बीजक मूल

हस्ती रहई । मृगीके फंदे मृगा परई । लोहै लोह जस काटु सयाना । त्रिया के तत्व त्रिया पहिचाना ।। साखी-नारि रचते पुरुप है । पुरुप रचते नार । पुरुपहि पुरुषा जो रचे । ते विरले संसार ॥ ५० ॥ रमैनी ॥५१॥ जाकर नाम अकहुवा भाई । ताकर काह घरमैनी गाई ॥ कहें तातपर्य एक ऐसा । जस पंथी, बोहित चढ़ि वैसा ॥ है कछु रहनि गहनि की। बाता । बैठा रहे चला पुनि जाता ॥ रहे बदन नहि स्वांग सुभाऊ ॥ मन अस्थिर नहिं बोले काहू ॥ साखी-तन रातो मन जात है। मन राता तन जाय ॥ तन मन एकै है रहे । (तब) हंस कबीर कहाय ॥५१॥ रमैनी ॥ ५२ ॥ जिहिं कारण शिव अजहु वियोगी । अंग विभूति लाय भौ योगी ।। शेष सहस मुख पार न , पावै । सो अब खसम सही समुझावै ॥ ऐसी विधि: ई जो मो कह ध्यावै । छठये मांहदरस सोपावै॥कौदेहुई भाव दिखाई देऊँ । गुप्तहिं रहों सुभाव सब लऊ ।। ARRAAAAAAAnanthiRAANIRAAMANTAR