पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/३९

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६३८ वीजक मूल * जाई । कहहिं कबीर चित चैतहु भाई ॥५६॥ रमैनी ॥ ५७॥ कृतिया सूत्र लोक एक अहई । लाख पचास की प्रायू कहई । विद्या वेद पढ़े पुनि सोई। वचन कहत परततै होई ॥ पैग वात विद्या की पेट ।' ३ वाहुक भरम भया संकेता। रमैनी ।। ५८ ॥ ६ साखी-खगखोजनको तुम परे । पाछे अगम अपार ।। विन परच कस जानिहो । कबीर भूटा है इंकार ।। ५७ ॥ । तें सुत मान हमारी सेवा । तोकह राज देउँ हो । देवा ।। अगम दृगम गढ़ देऊँ छुड़ाई । औरो वात* मुनहु कछु आई ।। उत्तपति परलय देउँ देखाई । - करहु राज सुख विलसो जाई ॥ एकौ वार न है है , वांको । बहुरि जन्म न होइ है ताको ॥ जाय पाप! सुख होइ है घना ॥ निश्चय वचन कबीर के मनाई साखी साधु संत तेई जना । (जिन्द ) मानल वचन हमार। आदि अंत उत्पति मलय । देसहु दृष्टि पसार ॥ ५८ ॥ रमैनी ।। ५९ ॥ . में चढ़त चढ़ावत भंडहर फोरी । मन नहिं जाने ।