पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/७

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वीजक मूल संसारा । कौन ज्ञान ते भयउ निनारा || भो वालक ! म भगद्वारे श्राया । भग भोगी के पुरुष कहाया ।' अविगति की गति काह न जानी । एक जीव कित कहूँ वखानी ॥ जो मुख होय जीभ दस लाखा। तो कोइ प्राय महंतो भाखा ॥ साखी कहहिं कबीर पुकारि के, ई ऊले न्याहार । राम नाम जाने बिना, यूड़ि मुवा संसार ॥१॥ रमैनी ॥ २॥ जीवरूप एक अंतर वासा । अंतर ज्योति कीन्ह । परकासा ॥ इच्छासपि नारि अवतरी तासु नाम, गायत्री धरी ॥ तेहि नारि के पुत्र तीनि भयऊ।। ब्रह्मा विष्णु महेश्वर नाऊँ ॥ फिर ब्रह्मे पूछलई महतारी । को तोर पुरुष केकरि तुम नारी। तुम हम, है हम तुम और न कोई। तुमही पुरुष हमहिं तव जोई।। सार्वी-बाप पूत की एक नारी, एकै माय पियाय। ऐसा पूत सपूत न देखा, जो वाहिं चोन्है धाय ॥२॥ Errrrrrrrrrrrrrrrrrrrr-