पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/९५

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1.६६ बीजक मूल बहुधा वेद कहे तस्खे का ॥ कहहिं कवीर तें मैं क्या । जान । को घों छूटल को अरुमान ॥ ६७ ॥ शब्द ॥ ६८॥ जो चरखा जरि जाय बढ़ेया न मरे में काँतों । सृत हजार । चरखुला जिन जरै ॥ वावा मोर व्याह । कराव | अच्छा वहि तकाव । जौंलों अच्छों वर ना मिले । तो लो तुमहिं वियाहु ॥ प्रथमे नगर पहुँचते । परिगो सोग संताप । एक अचंभव हम देखा। जो विटियाव्याहिल वापसमधी के घर लमधी ! नाये।ाये वहुके भाय |गोड़े चूल्हा. दै दै। चरखा। दियो दृढ़ाय ।। देवलोक मरि जायेंगे । एक न मरे। वहाय ।। यह मन रंजन कारणे । चरखा दियो । हदाय ॥ कहहिं कबीर सुनो हो संतों । चरखा लखे। जो कोय | जो यह चरखा लखि परे । ताको प्रा. । वागवन न होय ॥ ६८ ॥ शब्द ।। ६६ ॥ जंत्री जंत्र अनूपम बाजे । वाके अष्ट गगन !