पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/६४

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साधुभापितमिदं ममरोचते च.. प्रव्रज्यनाम बहुभिः सततंप्रशस्ता। हितमात्मनश्च परसत्व हितं च यत्र सुख जीवितं सुमधुरममृतं फलं च। . हे सारथी ! तू साधु कहता है। तेरी यह बात मुझे रुचती है। प्राचीन महर्पियों ने संन्यास आश्रम की बड़ी प्रशंसा की है। यही एक आश्रम है जिसमें मनुष्य अपने और पराए हित का साधन कर सकता है। इस आश्रम में मनुष्य शांतिपूर्वक अपना जीवन सुख से भैल्यवृत्ति द्वारा निर्वाह कर सकता है। इस आश्रम का फल सुमधुर मोक्ष है जिसे पाकर मनुष्य जरा-मरण से निवृत्त हो जाता है। उपनिपदों में कहा है- ... वेदतिविज्ञानसुनिश्चिताः . संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्वाः ते ब्रह्मलोके तु परांतकाले परामृता परिमुचंति सर्वे। -