पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/६५

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(७) महाभिनिष्क्रमण ब्रह्मचर्य्यात् गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेत् वनी भूत्वा परिव्रजेत् । यदहरे वविरजेत्तदहरेव परिव्रजेदनाद्वागृहाद्वा ॥ . जिस दिन से कुमार को चौथा उद्बोधन हुआ, उसी दिन से वे इसी चिंता में लगे रहते थे कि वे किस प्रकार गृहाश्रम त्याग संन्यास आश्रम ग्रहण करें। वे यह जानते थे कि मनुष्य के ऊपर तीन ऋण होते हैं जिन्हें बिना चुकाए मनुष्य संन्यास आश्रम ग्रहण. . करने का अधिकारी नहीं हो:सकता । विद्याध्ययन-कर वे ऋषि-ऋण से मुक्त हो चुके थे और यज्ञ कर उन्होंने, देव-ऋण से छुटकारा पाया था। पर अभी यशोधरा के गर्भ से कोई बालक नहीं उत्पन्न । हुआ था। यद्यपि वे जानते थे कि वह गर्भवती है, पर वे यह नहीं जानते थे कि गर्भ से. पुत्र होगा वा पुत्री। अतः जब तक पुत्र का जन्म न हो ले, उन पर पितृ-ऋण का भार वैसा ही वना था और शास्त्रानुसार वे संन्यास आश्रम के अधिकारी नहीं हो सकते थे। वे इसी विचार में निमग्न थे कि एक दास ने अंतःपुर से आकर उनसे निवेदन किया कि “जय हो, कुमार की ! महिषी यशोधरा के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ है।" कुमार को पुत्रोत्पत्ति सुन हर्ष हुआ और उन्होंने अपने को तीनों ऋणों से मुक्त समझा। उन्हें आशा हुई कि अब मुझे संन्यास ग्रहण करने में कोई अड़चन नहीं रही । मैं ऋण-मुक्त हो गया और अब मैं मोक्ष पद का अधि- कारी[हुआ । मनु ने कहा है-