पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२०९

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बुद्ध बोले "कहत उत्तम जाहि तू, है नीच;
स्वार्थ में रत होँय जे बकु जाय तिनके बीच।"


पुनि 'विचिकित्सा' आई जो नहिँ कछू सकारति।
बोली प्रभु के कानन लगि हठि संशय डारति
"हैँ असार सब वस्तु-सकल झूठो पसार है
औ असारता को तिनकी ज्ञानहु असार है।
धावत है तू गहन आपनी केवल छाया।
चल, ह्याँ ते उठ! 'सत्य' आदि सबही हैं माया।
मानु न कछु, कर तिरस्कार, पथ है यह बाँको।
कैसो नरउद्धार और भवचक्र कहाँ को?"
बोले श्री भगवान "शत्रु तू रही सदा हीं;
हे विचिकित्से! काज यहाँ तेरो कछु नाहीं"
'शीलव्रतपरमार्ष' परम मायावी आयो,
देश देश में जाने बहु पाखंड चलाया,
कर्मकांड औ स्तवन माहिं जो नरन बझावत,
स्वर्गधाम की कुंजी बाँधे फिरत दिखावत।
बोल्यो प्रभु सोँ "लुप्त कहा तू श्रुतिपथ करिहै?
देवन को करि विदा यज्ञमंडपन उजरिहै?
लोप धर्म को करन चहत तू बसि या आसन,
याजक जासौँ पलत, चलत देशन को शासन।"