पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२११

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कढ़त ही ये वचन छायारूप सब छन माहिँ
उड़ि गयो चट धूम ह्वै, तहँ रहि गयो कछु नाहिँ।


अंधड़ घना उठाय, अँधेरो नभ में छाए,
भारी पातक और और सब प्रभु पै आए।
आई 'प्रतिघा' कटि में कारे अहि लपटाई,
देति शाप जो तिनके बहु फुफकार मिलाई।
सौम्य दृष्टि ने प्रभु की मारी ताकी बाली,
मुख में कारी जीभ कीलि सी उठी न डोली।
प्रभु को कछु करि सकी नाहिं सब बिधि सोँ हारी।
कारे नागहु रहे सिमिटि फन नीचे डारी।
'रूपराग' पुनि आयो जाके वश नरनारी
जीवन को करि लोभ देत जीवनहि बिगारी।
पाछे लगो 'अरूपराग' हू पहुँच्यो आई
देत कीर्त्ति की लिप्सा जो मन माहिँ जगाई;
बुधजन हू परि जात जाल में जाके जाई,
बहु श्रम साहस करत, लरत रणभूमि कँपाई।
आयो तनि अभिमान; चल्यो 'औद्धत्य' फेरि बढ़ि
जासोँ धर्मी गनत लोग आपहि सब सोँ बढ़ि।
चली 'अविद्या' अपनो दल वीभत्स संग करि,
कुत्सित और विरूप वस्तु सोँ गई भूमि भरि।