पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२१४

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औ धुँधले नगअंचल समतल जिनपै जाई
लपक्यो पहुँचन हेतु नील नभ कर फैलाई।
बहु जन्मन की दीर्घ शृंखला प्रभु लखि पाई
क्रम क्रम ऊँची होति चली सीढ़ी सी आई,
अधम वृत्ति की अधोभूमि सों चढ़ति निरंतर
उच्च भूमि पै पहुँची निर्मल, पावन, सुंदर,
लसत जहाँ 'दश शील' जीव को लै जैबे हित
अति ऊँचे निर्वाणपंथ की ओर अविचलित।


देख्यो पुनि भगवान् जीव कैसे तन पाई
पूर्व जन्म में जो बोयो काटत सो आई।
चलत दूसरो जन्म एक को अंत होत जब,
जुरत मूर में लाभ, जात कढ़ि खोयो जो सब।
लख्यो जन्म पै जन्म जात ज्योँ ज्योँ बिहात हैं
बढ़त पुण्य सौँ पुण्य, पाप साँ पाप जात हैं।
बीच बीच में मरणकाल के अंतर माहीं
लेखो सब को होत जात है तुरत सदाहीं।
या अचूक लेखे में बिंदुहु छूटत नाहीं,
संस्कार की छाप जाति लगि जीवन माहीं।
या बिधि जब जब नयो जन्म प्राणी हैं पावत
पूर्व जन्म के कर्मबीज सँग लीने आवत।