पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/१६७

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बुद्ध और बौद्ध-धर्म 50 -- जाते हैं, परन्तु उन सब का एक ही आधार है, और वह आधार सुशीलता और सम्भाषण में शान्ति का होना है। इस कारण किसी को अपने पंथ की बड़ी प्रशंसा और दूसरों के पंथ की निन्दा नहीं करनी चाहिए । किसी को यह नहीं चाहिए कि उनका सब अवसरों पर उचित सत्कार करें। इस प्रकार यत्न करने से मनुष्य दूसरों की सेवा करते हुए भी अपने पन्थ की उन्नति कर सकते हैं। इसके विरुद्ध यत्न करने से मनुष्य अपने पन्थ की सेवा नहीं करता, और दूसरों के साथ भी बुरा व्यवहार करता है। और जो कोई अपने पन्थ में भक्ति रखने के कारण उसकी उन्नति के लिए उसकी प्रशंसा और दूसरे पन्थों की निन्दा करता है, वह अपने पन्थ में केवल कुठार मारता है। इसलिए केवल मेल ही प्रशंसनीय है, जिससे सब लोग एक-दूसरे के मतों को सहन करते और सहन करने में प्रेम रखते हैं । देवताओं के प्रिय की यह इच्छा है कि सब पन्थ के लोगों को शिक्षा दी जाय, और उनके सिद्धान्त शुद्ध हों। सब लोगों को चाहे उनका मत कुछ भी क्यों न हो, यह कहना चाहिए कि देवताओं का प्रिय वास्तविक धर्माःचरण की उन्नति और सव पन्थों में परस्पर सत्कार की अपेक्षा दान और वाहरी विधानों को कम समझता है। इसी उद्देश्य से धर्म का प्रबन्ध करनेवाले कर्मचारी, खियों के लिए कर्मचारी, निरीक्षक और अन्याय कर्मचारी लोग कार्य करते हैं। इसी का फल मेरे धर्म की उन्नति और धर्म-दृष्टि से उसका प्रचार है । ,