पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/३३

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बुद्ध और बौद्ध-धर्म ३० स्थानों में है। इसका अर्थ है-कर्म ही हमारा निज का है । हम कर्म के अर्थात् कर्म-फल के उत्तराधिकारी हैं। कर्म ही हमारी उत्पत्ति का कारण है, क्रर्म ही हमारा बंधु है, कर्म ही हमारा शरण्य है, पुण्य हो अथवा पाप । हम जो कर्म करेंगे, उसीके उत्तराधिकारी होंगे-सीका फल हमको भोग करना होगा। --मैत्री आदि भावनाएं। सब प्राणियों को मित्र के समान जानना ही मैत्री भावना है। बौद्ध-धर्म में यह भावना सुप्रसिद्ध और अति सुन्दर है। इनके सिवा, मुदिता, उपेक्षा और करुणा आदि कई भावनाएं और भी हैं। बौद्ध-धर्म का यही सिद्धांतवाद है। विचार कर देखने से ज्ञात होता है कि ये सब सिद्धांत आर्य-ग्रंथों से ही लिये गए हैं। और, वास्तव में उस हिंसावाद में प्रयोग-पूर्ण अहिंसावाद से ही बुद्ध-धर्म का इतना विस्तार हुआ। दुःख नाश के आठ मार्ग वह बताते हैं- (१) सत्य-विश्वास (२) सत्य-कामना (३) सत्य-वाक्य (४) सत्य व्यवहार (५) जीवन-निर्वाह के सत्य उपाय (६) सत्य उद्योग (७) सत्य विचार (८) सत्यं ध्यान