पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१७६

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बृहदारण्यकोपनिषद स० अजातशत्रुः प्रजातशत्रु रामा। उवाच-योकाफिाएतस्मिन् : इस ब्रह्म थिपे । मा मा संवदिष्टाः ऐमा मत कहो, ऐमा मत कहो । + सा-वह सूर्यस्थ पुरुष । प्रतिष्टा:-पय जीयों को अति- क्रमण करके रहनेवाला है। सर्वेपाम-मय भूतानाम-प्राजियों का । मूर्धा-शिर है। + चम्चौर । राजाप्रकाशयाला है। इति-ऐसा। + मत्वा मानकर । अहम में । स्यश्य ! एवम्-इसकी । उपासे-उपासना करता है। और। इति-ऐसा 1 + मत्वा-मानकर । यःमो। पतम्-इसकी। एवम्-इस प्रकार : उपास्ते-उपासना करता है । साम्यह उपासक । अतिष्टा-मयको शतिमनए फरम नेवाला।

  • भवति होता है। + च-और । सर्वेषाम्सव । भूतानाम:

प्राणियों के मध्य । मूर्धा-प्रतिटावाला। + चोर । राजा राजा । भवति होता है। भावार्थ । तब वह प्रसिद्ध बालाकी गर्गगोत्रवाला बोलता भया कि हे राजन् ! सूर्यविपे जो पुरुप दिखाई देता है वही ब्रह्म है, और उसी को मैं ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करता हूं. तव वह अजातशत्रु राजा ऐसा सुनकर बोला कि ब्रह्मसंवाद बिपे ऐसा मत कहो, यह श्रादित्य जो दिखाई देता है वह ब्रह्म नहीं है, यह सूर्यस्थ पुरुप निस्संदेह सब जीवों को अतिक्रमण करके रहता है, यानी जब सब जीव नष्ट हो जाते हैं तब भी यह बना रहता है, यह सब प्राणियों का शिर है, यानी सबों करके पूजने योग्य है, और यही प्रकाश- वाला भी है, ऐसा मानकर मैं इस सूर्य की उपासना करता हूँ, और ऐसा समझ कर जो कोई इसकी उपासना करता