पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६८ बृहदारण्यकोपनिषद् स० करके । प्राणा:माण है। + इति इसलिये। प्राणान-प्राण को हो । एतत्-यह विश्वरूप यश । श्राह-कहते हैं। तस्य% तिसके । तीरे-समीप । सात-सान । ऋपयःन्द्रियों। श्रासते-रहती हैं । इति-इस प्रकार । ऋषयः सात इन्द्रियां यानी दो नेत्र, दो श्रोत्र. दो नापिका और एक जिदा । प्राणाः चप्राण ही हैं। + इति इसी कारण | मन्त्रः मन्त्र ने । एतत्-इसको । प्राणान्प्राण । श्राद-कहा है।+ च% और । ब्रह्मणा वेद से । संविदाना-संवाद करनेवाली । अष्टमी पाठवौं । वाग्बाणी है। इति=ऐसा 1 + मन्त्रा मन्त्र ने । + उक्तम् कहा है। हि-क्योंकि । अष्टमीमाटची। वाक्वाणी । ब्रह्मणा वेद के साथ । संवित्ते-सम्बन्ध करती है। भावार्थ । हे सौम्य ! जो पिछले मन्त्र में कहा गया है कि जीवात्मा के सात शत्रु ह, उन्हीं का व्याख्यान इस मन्त्र में कहा जाता है सुनो, जिसका मुख नीचे है और पेंदा ऊपर है, ऐसा यज्ञ का कटोरावत् जो मनुष्य का शिर हैं, उसमें नाना प्रकार के चमत्कारवाले प्राण स्थित है, और उसके किनारे पर सात प्राणयुक्त इन्द्रियाँ, यानी दो नेत्र, दो कर्ण, दो नासिका और एक जिहा (विपयों की भोगनेवाली और इसी कारण जीव के शत्रु ) स्थित हैं, और हे सौम्य ! एक प्राणयुक्त वेद से संवाद करनेवाली आठवीं वाणी भी स्थित है ।। ३ ॥ मन्त्रः४ इमावेव गोतमभरद्वाजावयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज इमा- वेव विश्वामित्रजमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जम-