पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२४२

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२२६ बृहदारण्यकोपनिषद् स. मन्त्रः स यथा चीणाय वीद्यमानाय न बाहाशब्दाशक्नु- याद्ग्रहणाय व णाय तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ पदच्छेदः। सः, यथा, वीणाय, वाद्यमानायै, न, बाल्यान् , शब्दान्, शक्नुयात्, ग्रहणाय, वारणाय, तु. ग्रहणेन, वीणावादस्य, वा, शब्दः, गृहीतः ॥ अन्वय-पदार्थ । + अत्र-इस विप । सन्प्रसिद्ध । +वान्तःterन्त । + वदति-कहते हैं । यथाये । बाधमानायै प्रजनी हुई। वीणायै धीणा के । बाहान्याहर निकले हुये । शन्दान्- शब्दों को । ग्रहणाय-भली प्रकार ग्रहण करने के लिये । +जन:: कोई मनुष्य । न-नहीं । शक्नुयात्समधं होता है । तु- परन्तु । वीणायवाणा के । ग्रहगन ग्रहण करने से । चार अथवा । वीणावादस्य-योगा यमागेवाले के । + ग्रहणेन ग्रहण करने से । शब्दः गृहीतः शब्द का ग्रहण । + भवति- होता है । +तद्वत्-उसी तरह । +नात्मा-प्रारमा । गृहीतः- गृहीत । + भवति होता है। भावार्थ । हे सौम्य ! तीसरा दृष्टान्त देकर मैत्रेयी को याज्ञवल्क्य महाराज समझाते हैं कि हे मैत्रेयि ! जैसे बजती हुई बीन के बाहर निकले हुये शब्दों को भली प्रकार ग्रहण करने के लिये कोई मनुष्य समर्थ नहीं होता है उसी प्रकार बाहर