अध्याय २ ब्राह्मण ५. २६१ उसके द्वारा आप हमको उपदेश करें, जब इन्द्र आकर घोड़ेवाले आपके शिर को काट डालेगा तब हम फिर आप के पहिले शिर को श्रापकी गर्दन से जोड़ देंगे। यह सुनकर दध्यऋषि अश्विनीकुमारों को उपदेश के लिये उद्यत हुये, और अश्विनीकुमारों ने अपने कहने के अनुसार दध्यऋषि का शिर काटकर अलग रख दिया, और एक घोड़े का शिर काटकर ध्यऋषि की गर्दन से जोड़ दिया, तब ऋषि ने उसे घोड़े के शिर के द्वारा अश्विनीकुमारों को ब्रह्मविद्या का उपदेश किया, जब यह हाल इन्द्र को मालूम हुआ तब इन्द्र आनकर दध्यपि के घोड़ेवाले शिर को काटकर चला गया तत्पश्चात् अश्विनीकुमारों ने ऋपि महाराज के पहिलेवाले शिर को लाकर उनकी गर्दन से जोड़ दिया। इस आख्यायिका से ब्रह्मविद्या का महत्व दिखाया गया है, और हे मैत्रेयि ! उसी ब्रह्मविद्या को मैं तुम से कहता हूँ ॥ १६ ॥ मन्त्रः १७ इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । तदेत- दृपिः पश्यन्नवोचत् । आथर्वणायाश्विना दधीचेऽश्व्यछ शिरः प्रत्यैरयतं स वां मधु प्रबोचहनायत्वाष्ट्र' यद्दत्रा- वपि कक्ष्यं वामिति ॥ पदच्छेदः। इदम्, वै, तत्, मधु, दध्यङ्, पाथर्वण:, अश्विभ्याम् , उवाच, तत्, एतत्, ऋपिः, पश्यन्, अवोचत्, पाथर्वणाय, अश्विना, दधीचे, अश्व्यम् , शिरः, प्रत्यैरयतम्, स, वाम् , मधु, प्रवोचत्, ऋतायन्, त्वाप्ट्रम्, यद्, दस्रो, अपि, कक्ष्यम् , वाम्, इति ॥