पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२८३

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अध्याय २ ब्राह्मण ५ २६७ है। अयम् यही प्रत्यगामा । ब्रह्म प्रहा है । सर्वानुभू-सबका अनुभव करनेवाला है। इति-इस प्रकार + अरे हे प्रिय मैत्रेयि ! अनुशासनम् यह सब वेदान्त का उपदेश है। भावार्थ। हे प्रिय मैत्रेयि ! इसी मधु ब्रह्मविद्या को अथर्ववेदी दध्यङ्- ऋषि अश्विनीकुमारों के प्रति कहता भया और उसी विद्या को जानता हुआ एक ऋपि भी अपने शिष्य अश्विनी- कुमारों से कहता भया कि वह परमात्मा हरएक रूप में प्रतिविम्बरूप से स्थित हुआ है, प्रश्न होता है, वह क्यों ऐसा होता भया, उत्तर मिलता है कि वह प्रतिविम्ब बिम्ब की सिद्धि के लिये होता भया है। क्योंकि विना प्रतिबिम्ब के ज्ञान के विम्ब का ज्ञान नहीं हो सकता है, हे मैत्रेयि ! वह परमात्मा नामरूप उपाधि करके बहुरूपवाला जाना जाता है, वास्तव में उसका एक ही रूप है । हे प्रिय मैत्रेयि जैसे रथ में लगे हुये घोड़े रथी को अपने नेत्र के सामने के देश की तरफ ले जाते हैं, तैसे ही इस प्रत्यगात्मा यानी जीव को शरीर में लगी हुई विषयहरण करनेवाली इन्द्रियां भी विपय की तरफ ले जाती हैं, वे इन्द्रियां एक हजार हैं, दस हजार हैं, बहुत हैं,असंख्य हैं, यानी जितनी वे हैं उतनाही यह प्रत्यगात्मा भी दिखलाई देता है। यही प्रत्यगात्मा व्यापक ब्रह्म है, यही अद्वितीय है, यही सब व्यवधानों से रहित है, यही प्रत्यगात्मा सवका अनुभवी है । हे प्रिय मैत्रेयि ! यही वेदान्त का उपदेश है ॥ ११ ॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ५ ॥