पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२८७

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श्रीगणेशाय नमः। अथ बृहदारण्यकोपनिषदि तृतीयाध्याये जनकाश्वमेधप्रकरणम् । i अथ प्रथमं ब्राह्मणम् । मन्त्रः १

  • अजनको ह । चैदेहो वहुदक्षिणेन यज्ञेनेजे तत्र ह

कुरुपञ्चालानां ब्रामणा अभिसमेता बभूवुस्तस्य ह जनकस्य वैदेहस्य विजिज्ञासा बभूव कःस्विदेषां ब्राह्म- णानामनूचानतम इति स. ह गवां सहस्रमवरुरोध दश दश पांदा एकैकस्याः शृङ्गयोराबद्धा बभूवुः ॥ पदच्छेदः। अम् , जनकः, ह. वैदेहः, बहुदक्षिणेन, यज्ञेन, ईजे, तत्र, ह, कुरुपञ्चालानाम् , ब्राह्मणाः, अभिसमेताः, बभूवुः, तस्य, ह, जनकस्य, वैदेहस्य, विजिज्ञासा, बभूव, कः, स्वित्, एषाम् . ब्राह्म- गानाम्, अनूचानतमः, , इति, सः, इ, गवाम् ,सहस्रम्, अवरोध, दश, दश, पादाः, एकैकस्याः, शृङ्गयोः, आबद्धाः, बभूवुः ।।

  • जितने मिथिलादेश के राजा हुये हैं वे सब जनक नाम से प्रसिद्ध

हुये हैं, क्योंकि वे अपनी प्रजा के ऊपर पिता के सदृश कृपा रखते थे। + वैदेह -इस शब्द में वि उपसर्ग है, जिसका अर्थ नहीं है, और देह का अर्थ शरीर है, वैदेह वह पुरुष कहा जाता है जिसका शरीराभिमान नष्ट होगया है, चूंकि मिथिलादेश के राजा जितने हुये हैं वे सब विद्वान्, ब्रह्मविद, देहाभिमानरहित हुये हैं, इस कारण वे वैदह कहलाते रहे।

  • बहुदक्षिणा वह यज्ञ है जिसमें बहुत दक्षिणा ब्राह्मणों को दिया

जाय, ऐसे यज्ञ अश्वमेध और राजसूयादिक हैं ।