पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३११

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. अध्याय ३ ब्राह्मण २- २१७ गृहीत है। हि-क्योंकि । + लोकालोक । चक्षुषा-नेत्र करके हो । रूपाणि-रूपों को । पश्यति देखता है । भावार्थ । नेत्र निश्चय करके ग्रह है, और रूप उसका अतिग्रह है, रूप करके नेत्र गृहीत है, क्योंकि पुरुष चक्षु करके ही अनेक प्रकार के रूपों को देखता है, चूंकि रूप करके पुरुष बन्धन में पड़ता है, इस कारण चक्षु को ग्रह यानी बांधने- वाला कहा है ॥ ५ ॥ मन्त्रः ६ श्रोत्रं वै ग्रहः स शब्देनातिग्राहण गृहीतः श्रोत्रण हिं शब्दापृणोति ॥ पदच्छेदः। - श्रोत्रम्, वै, ग्रहः, सः, शब्देन, अतिग्राहेण, गृहीतः, श्रोत्रेण, हि, शब्दान् , शृणोति ॥ . अन्वय-पदार्थ। श्रोत्रम् कर्ण । ग्रहः ग्रह है । साबही फर्ण । शब्देन शब्दरूप । अतिग्राहेण-अतिग्रह यानी विषय करके । गृहीत:- गृहीत है। हि-क्योंकि । + लोकालोक । श्रोत्रेण काम करके । शब्दान्-शब्दों को । शृणोति-सुनता है। भावार्थ। श्रोत्रेन्द्रिय निश्चय करके ग्रह है, शब्द अतिग्रह है, क्योंकि शब्द करके ही श्रोत्रेन्द्रिय गृहीत है, चूंकि विषय सम्बन्धी शब्द पुरुष को बांधता है, इस कारण श्रोत्रेन्द्रिय को ग्रह यानी बांधनेवाला काढ़ा है ।। ६ ।। i