पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३६०

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बृहदारण्यकोपनिषद् स० +यःजो। चन्द्रतारकात्-चन्द्रतारों के । अन्तर-बाहर है। यम्-जिसको । चन्द्रतारकम् चन्द्रतारे । न-नहीं । वेद-जानते हैं। यस्य:जिसका। शरीरम्-शरीर । चन्द्रतारकम् चन्द्र और तारे हैं। या जो । अन्तर:-चन्द्र और तारों के अभ्यन्तर रहकर । चन्द्रतारकम्-चन्वतारों को। यमयति-नियमबद्ध करता है। एप: यही । ते-तेरा । अमृता अविनाशी । आत्मा-यात्मा । अन्तर्यामी-अन्तर्यामी है। भावार्थ। जो चन्द्रमा और तारों के भीतर वाहर स्थित है, जिसको चन्द्रमा और तारे नहीं जानते हैं, जो चन्द्रमा और तारों को जानता है, जिसका शरीर चन्द्रमा और तारे हैं, जो चन्द्रमा और तारों के भीतर रहकर उनको शासन करता है, जो आपका आत्मा है, जो अमृतरूप है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ ११ ॥ मन्त्रः १२ य आकाशे तिष्ठन्नाकाशादन्तरो यमाकाशो न वेद यस्याकाशः शरीरं य आकाशमन्तरो यमयत्येप त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः॥ पदच्छेदः। यः, आकाशे, तिष्ठन् , आकाशात्, अन्तरः, यम्, आकाशः, न, वेद, यस्य, आकाशः, शरीरम् , य:,आकाशम् , यमयति, एषः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ।। अन्वय-पदार्थ। यो । आकाशे-आकाश में । तिष्ठन्:स्थित है। अन्तरः,