पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ३ ब्राह्मण-७ ३४७ + यःमो। श्राकाशात-पाकाश से । अन्तरवाहर है.यम् जिसको। आकाश: आकाश । न-नहीं । वेद-मानता यस्य-जिसका । शरीरम् शरीर । आकाशः प्राकाश है। यःजो। अन्तर:-श्राकाश के श्रभ्यन्तर रहकर । आकाशम् =. आकाश को। यमयति-नियमबद्ध करता है। एपःबही । ते- तेरा । अमृतः अविनाशी । आत्मा अात्मा । अन्तर्यामी अन्तर्यामी है। भावार्थ। जो आकाश के भीतर बाहर स्थित है, जिसको आकाश नहीं जानता है, जो आकाश को जानता है, जिसका शरीर आकाश है, जो आकाश के भीतर वाहर रहकर उसको शासन करता है, जो आपका श्रात्मा है, जो अमृतस्वरूप है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ १२ ॥ मन्त्रः १३ यस्तमसि तिष्ठ स्तमसोऽन्तरो यं तमो न वेद यस्य तमः शरीरं यस्तमोऽन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्या- म्यमृतः ॥ पदच्छेदः। यः, तमसि, तिष्ठन् , तमसः, अन्तरः, यम्, तमः, न, वेद, यस्य, तमः, शरीरम् , यः, तमः, अन्तरः, यमयति, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ॥ अन्वय-पदार्थ। यः जो। तमसि अन्धकार में। तिष्ठन् स्थित है। + यः जी। तमसा-अन्धकार के अन्तर:-बाहर है। यम् तमः T:=जिसको एपः,