पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३६६

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३५२ बृहदारण्यकोपनिपद स० वेद, यस्य, वाक्, शरीरम् , यः, बाचम्, अन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ।। अन्वय-पदार्थ। यःो । वाचिम्बाणी में । तिष्ठन्-स्थित है। यानी। वाचः वाणी के । अन्तरम्बाहर है। यम्-जिसको। वाणी वाणी। न-नहीं। वेद जानती है । यस्य-जिसका । शरीरम् शरीर । वाक्-वाणी है । यःजो । अन्तरवाणी में रहकर । वाचम् वाणी को । यमयति-नियमबद्ध करता है। एयः वही। ते-तेरा । अमृता-अविनाशी । श्रात्मा-प्रात्मा । अन्तर्यामी धन्तर्यामी है। भावार्थ । जो वाणी के अन्तर स्थित है, जो वाणी के बाहर स्थित है, जिसको वाणी नहीं जानती है, जो वाणी को जानता है, जिसका शरीर वाणी है, जो वाणी के भीतर वाहर रहकर वाणी को शासन करता है, जो आपका श्रात्मा है, जो अमृतस्वरूप है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ १७ ॥ मन्त्रः १८ यश्चक्षुपि तिष्ठश्चक्षुपोऽन्तरो यं चक्षुर्न वेद यस्य चक्षुः शरीरं यश्चक्षुरन्तरो यमयत्येप त आत्माऽन्तर्या- म्यमृतः॥ पदच्छेदः। यः, चक्षुषि, तिष्ठन्, चक्षुपः, अन्तरः, यम्, चतुः, न, वेद, यस्य, चक्षुः, शरीरम् , यः, चक्षुः, अन्तरः, यमयति, एषः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ।।