पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४५२

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बृहदारण्यकोपनिषद् स० आशितम् अन्नसम्बन्धी दान । पायितम्-पान करने योग्य जलदान । अयम्-यह । लोकः लोक । च-और । पर:=पर । लोका-तोक । + च-ौर । सर्वाणि च संपूर्ण । भूतानि- प्राणी । सम्राट हे जनक ! वाचा एव-वाणी करके ही । प्रशा- यन्ते-जाने जाते हैं । सम्राट हे जनक ! ! वाक्-वाणी । वै-ही। परमम् श्रेष्ठ । ब्रह्म-ब्रहा है। + यथोक्तब्रह्मवित्यो ऊपर कहे हुये प्रकार ब्रह्मवेत्ता है । एनम् उसको । बाक्वाक् शास्त्र । न-नहीं। जहाति त्यागता है। च-और । एनम् उस ब्रह्मवेत्ता को । सर्वाणि-सबै । भूतानि-प्राणी । अभिक्षरन्ति रक्षा करते हैं। यःमो कोई । एवम् इस प्रकार । एतत्-इस ब्रह्म को । विद्वान् जानता हुधा । उपासते-उसको उपासना करता है। सः बहा देवा-देवता। भूत्वा होकर । देवान् अपि- शरीर पात के बाद देवताघों को ही । एति प्राप्त होता है। इति-ऐसा । + श्रुत्वा-सुन कर । वैदेह: विदेहाधिपति । जनक:राजा जनक । उवाच ह-योले कि । याज्ञवल्क्य% हे याज्ञवल्क्य ! । हस्त्युषभम् हाथी के ऐसे सांड सहित । सहस्त्रम्-एक हजार गौत्रों को । ददामि-विद्या की दक्षिणा में मैं अर्पण करता हूँ। इति इसके जवाब में। याज्ञवल्क्या- याज्ञवल्क्य महाराज ने । हस्पष्ट । उवात्र-कहा कि । सम्राट हे राजन् ! । मे-मेरे । पिता-पिता । श्रमन्यत-उपदेश कर गये हैं कि । अननुशिप्य-शिष्य को भलीप्रकार बोध कराये और कृतार्थ किये बिना। न हरेत-दक्षिणा न लेना चाहिये। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि हे जनक । जिस किसी ने तुम्हारे लिये उपदेश किया है उसको मैं सुनना चाहता