पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४६३

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अध्याय ४ ब्राह्मण १. वैदेहः-विदेहपति । जनका जनक ने । उवावकहा । हस्त्य- पमम्-हाथी के समान एक सांड़ सहित । सहस्रम्-एक हजार गौत्रों को। + त्वाम्-प्रापको । ददामि दक्षिणा में देता है। ह-तम । सान्वह। याज्ञवल्क्य: याज्ञवल्क्य । उवाच-बोले कि । मे मेरे । पिता-पिता । अमन्यत-धाज्ञा दे चुके हैं कि । + शिष्यम्-शिष्य को । अननुशिष्य-बोध कराये विना । न हरेत-दक्षिणा नहीं लेना चाहिये । भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज तृतीय बार पूछते हैं कि हे राजा जनक ! जो कुछ आपसे किसी ने कहा है उसको मैं सुनना चाहता हूं, जनक महाराज कहते हैं कि, वृष्णाचार्य के पुत्र बर्कुनामक आचार्य ने मुझको उपदेश किया है कि नेत्रही ब्रह्म है, इस पर याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि बङ आचार्य ने वैसेही आपको उपदेश किया है जैसे कोई पुरुष माता पिता गुरु करके सुशिक्षित होता हुआ अपने शिष्य के लिये उपदेश देता है, नि:संदेह नेत्रही ब्रह्म है, क्योंकि चक्षुहीन पुरुष को क्या लाभ होसक्ता है, फिर याज्ञवल्क्य महाराज पूछते हैं कि, हे राजा जनक ! क्या आपको बर्षा आचार्य ने ब्रह्म के आयतन और प्रतिष्ठा को भी बताया है ? इस पर जनक राजा ने उत्तर दिया कि यह तो मुझको नहीं बताया है, इस पर . याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे सम्राट् ! यह उपासना एक चरण की है, अर्थात् तीन चरणों से हीन है, इसलिये निष्फल है, तब जनक महाराज ने कहा हे हमारे पूज्य, याज्ञवल्क्य, महाराज! आपही हमको ब्रह्मकी उपासना का उपदेश करें, तब याज्ञवल्क्य महाराज ने कहा, हे जनक!