पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४८१

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अध्याय ४ ब्राह्मण २ ४६७ घोले कि । याज्ञवल्क्य है याज्ञवल्क्य ! । ते श्राप के लिये। नमः=मेरा नमस्कार । श्रस्तु-हो । मामुमको ! + त्वम्- धाप । श्रनुशाधि उपदेश दें । इति-तब । सम्बह याज्ञ- यस्य । उवात्र-बोले कि । सम्राट्-हे राजन् ! । यथा-जैसे । महान्तम्-महु दूर । अध्यानम्-मार्ग का । एप्यन्-मानेवाला पुरुष रथमरथ । वाम्या ।नावम्-नाव को। समाददीत- प्राण करता है। एवम् एव-इसी प्रकार । एताभिः इन कहे हुये । उपनिषद्भिःमान विज्ञान करके । समाहितात्मा श्राप का घारमा । असि-संयुग्ना है 1+ च और । एवम् वैसे ही । त्वम्-धाप । वृन्दारकाम्लोगों करके पूज्य और । प्रायः धनादर । सन्-होने पर भी । अधीतवेद: वेदों को पढ़े हो। उत्तोपनिषत्कारपनिपदों का ज्ञान पापसे कहा गया है। + हि-तुम कहो कि । इतः इस देश से । मुच्यमानामुक्त होते हुचे । फ-कहां को। गमिप्यसि-मावोगे । इति इस पर । + जनका जनक ने | + पाह-कहा । भगवन्-हे पूज्य याज्ञयएश्य !। यत्र-महां । गमिप्यामिमैं जाऊंगा । तत्- उसी। अहम् में । न-नहीं । वेद मानता हूँ । अय-तब । यामवल्क्या याज्ञवल्क्य ने । उवाच-गवाब दिया कि । तत् उसको । त-प्रापसे । यत्रश्य । वक्ष्यामि मैं कहूँगा । यत्र जहां । गमिप्यसि:शाप जायंगे । इति इस पर । जनकः= जनक ने । श्राहकहा । भगवान्-हे भगवन् ! | + त्वम्-धाप । इति-ऐना अवश्य । बबीतुकहें । भावार्थ । विदह पति राजा जनक महाराज सिंहासन से उठकर याज्ञवल्क्य महाराज के पास जाकर बोले कि, हे याज्ञवल्क्य,