अध्याय ४ ब्राह्मण ३. ४७७ प्रश्न वर को । ददौ-यावल्क्य सहाराज देते भये । ह इसी कारण । सम्राट जनक ने। पूर्वम् एव-पहिले ही । पप्रच्छन विना प्राज्ञा पूछना प्रारंभ किया। भावार्थ। एक समय याज्ञवल्क्य महाराज यह अपने मन में ठान- कर जनक महाराज निकट चले कि आज मैं राजा को कुछ भी उपदेश नहीं दूंगा, केवल चुपचाप बैठा हुआ जो कुछ वह कहेंगे उसको सुनता रहूँगा, जब याज्ञवल्क्य महाराज राजा जनक के पास पहुँचे तब जनक ने जीवात्मा के बारे में प्रश्न किया, उसका उत्तर महाराज ने दिया इस पर शंका होती है कि जब याज्ञवल्क्य ने ठान लिया था कि मैं कुछ न कहूँगा तो फिर जनक के प्रश्न का उत्तर क्यों दिया? इस शंका का समाधान यों करते हैं कि एक समय जब कर्मकाण्ड में सब कोई प्रवृच थे उस समय अग्निहोत्र के विषय में राजा जनक और अन्य राजा याज्ञवल्क्य महाराज और अन्य मुनिगण नापस में संवाद करने लगे, उस समय राजा जनक को निपुणता देख संतुष्ट हो याज्ञवल्क्य मुनि ने राजा से पूछा कि क्या तम वर माँगते हो, राजा ने कास- प्रश्न रूप वर माँगा अर्थात् जब मैं चाहूँ तब श्राप से प्रश्न कीं, चाहे आप किसी दशा में हों, यह वर चाहता हूँ. इस वर को याज्ञवल्क्य महाराज ने दिया, यह कहते हुये कि.हे राजा जनक ! जब तुम चाहो मुझ से प्रश्न कर सकते हो, इसी कारण याज्ञवल्क्य महाराज को अपनी इच्छाविरुद्ध बोलना पड़ा ॥ १॥