पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५०२

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वृहदारण्यकोपनिषद् स० श्रागे कहते हैं, हे राजन् ! जब पुरुष स्वप्न अवस्था को प्राप्त होता है तभी वह स्वप्न में देखना है कि मैं सुग्वी हूं, मुझमें किंचित् भी दुःख नहीं है, इसी तरह इस लोक में भो परलोक के सुख का अनुभव करता है, और समझना है कि परलोक कोई मिन्न वस्तु है, यातवल्क्य महागज कहते हैं कि, जो जागरण और स्वप्नावस्था में सामान्यरूप से विचरण करता है वही श्रात्मा है, और जैसे जागरणावस्था में और स्वप्नावस्था में कुछ भेद नहीं है वैसे ही इस लोक और परलोक में भी कोई भेद नहीं है जो कुछ यहां कमाता है उसका फल वहां भोगता है ॥ ७ ॥ - स वा अयं पुरुपो जायमानः शरीरमभिसंपद्यमान: पाप्मभिः स मृज्यते स उत्क्रामम्रियमाणः पाप्मनो विजहाति ।। पदच्छेदः । सः, वै, श्रयम् . पुरुषः, जायमानः, शरीरम् , अभिसंप- द्यमानः, पाप्मभिः, संसृज्यते, सः, उत्क्रामन् , म्रियमाणः, पाप्मनः, विजहाति ॥ अन्वय-पदार्थ । सासो। वै-निश्चय करके । श्रयम् यह । पुरुषः पुरुष । जायमानः उत्पन्न होता हुधा । शरीरम् शरीर को। अभिसंपद्यमानः प्राप्त होता है। च-ौर । पाप्मभिः-अशुभ कर्मजन्य अधर्मों से । संसृज्यते-संगत करता है। च-और ।