पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५६२

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वृहदारण्यकोपनिषद् स० अतेजोमयः तेजरहित है । काममयः कामना से पूर्ण है। . अकाममयः कामनारहित है । क्रोधमयः क्रोध से भरा है। अक्रोधमयः क्रोधरहित है । धर्ममयःधर्म से भरा है। अधर्ममयः-धर्मरहित है। सर्वमयः सर्वमय है यानी जो कुछ है सब इसी में है । यत्-जिस कारण । एतत्-यह जीवात्मा । इदमयः इस लोक की सर वासनाओं करके वासित है। अदोमयः परलोक की वासनाश्री करके वासित है । तत्-इस लिये । इति ऐसा यानी सर्वमय है । यथाकारी-जिस प्रकार के कमों को करता है । यथाचारी-जिस प्रकार भाचरणों को करता है । तथा भवति वसे ही होता है । साधुकारी-अच्छे कर्म का करनेवाला । साधुः साधु है । पापकारी-पापकर्म का करनेवाला । पापः पापी। भवति होता है । पुण्येन पुण्य कर्म करके । पुण्यः पुण्यवान् । भवति होता है। पापेन-पाप। कर्मणा-कर्म करके । पापा पापी । भवति होता है । अथो- इसके अनन्तर । खलु-निश्चय करके । आहुः कोई आचार्य कहते हैं कि । अयम् एवम्यही । पुरुषः पुरुप । काममयः- काममय है । इति इसी कारण । सा-यह । यथाकामा जिस इच्छावाला । भवति होता है । तत्क्रतुः वैसा ही उसका परिश्रम । भवति होता है । यत्क्रतुः जैसा परिश्रमवाला । भवति होता है । तत् वैसा ही। कर्म-कर्म को । कुरुते- करता है । यत्-जैसा । कर्मकर्म । कुरुते-करता है । तत् वैसा फज । अभिसंपद्यते- पाता है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! वही यह जीवात्मा ब्रह्मस्वरूप है, वही विज्ञानस्वरूप है, वही.