पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५८८

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५७४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० तस्य एव-उस ब्रह्म के महत्त्व का । सःबह । पद वित्-ज्ञाता। स्यात् होता है । तदा तय । तम्-उस महिमा को । विदि- त्वा-जान कर । पापकेन-पाप । कर्मणा-कर्म करके । न-नहीं । लिप्यते-लिप्त होता है। तस्मात् इस लिये। एवंवित्=ऐसा जाननेवाला । शान्तः शान्त । दान्तः-दान्त । उपरत::- उपरत । तितिक्षुः तितिक्षु समाहितः सावधान । एवंवित्- समाहित चित्त । भूत्वा होकर । श्रात्मनि एच-अपनेही में। आत्मानम्-परमात्मा को। पश्यतिन्देखता है। + चम्चौर । यदा अव । सर्वम्-सव जगत् को। अात्मानम्-धात्मरूपही। पंश्यांत-देखता है । तदा तव । एनम् इस ज्ञानी को। पाप्मा-पाप । न-नहीं। प्राप्नोति लगता है। किन्तु-किन्तु । + सः वह ज्ञानी । सर्वम्-सब । पाप्मानम्-पाप को । तरति- तरता जाता है । एनम्-इस ज्ञानी को । पाप्मा-पाप नि-नहीं। तपति-तपाता है। + किन्तु-किन्तु । + सा-वह ज्ञानी । सर्वम्-सव । पाप्मानम्-पाप को। तपति-नष्ट कर देता है। ब्रह्मणाम्ब्रह्मवित् । विपापः पापरहित । विरजा-धर्माधर्म रहित। अधिचिकित्सा निस्सन्देह । भवति होता है । सम्राट हे जनक ! । एप: यही । ब्रह्मलोका बसलोक है । एनम् इसी लोक को। + त्वम्-श्राप । प्रापितः पहुँचाये गये । असि हैं। यदा अब । इति इस तरह । याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य ने । उवाच ह-कहा तव ।+जनका अनक ।+ आहबोले । सम्वही बोधित । अहम्-मैं । भगवते-आप के लिये । विदेहान्-विदेह देशों को। सह-साथही । माम् च अपि-साथ अपने आपको भी। दास्याय-सेवा के लिये। ददामि देता हूं। भावार्थ । हे राजा जनक ! जिस संन्यासी का जैसा. वर्णन होचुका